रविवार, 22 जनवरी 2012

छोटे शहरों में बन रही है कला बाजार की नई टेरेटरी

जयपुर के कई आर्ट कलेक्टर बताते हैं कि उनके पास दिल्ली, हैदराबाद, सूरत, भोपाल, लखनऊ और गया जैसे शहरों से लोगों के फोन आते हैं। वे यहां के आर्ट और आर्टिस्टों के बारे में जानना चाहते हैं। वे यहां के कलेक्शंस को खरीदने में रुचि दिखाते हैं। उनके पास पैसा तो है लेकिन यहां के आर्ट और आर्टिस्टों तक पहुंच नहीं है।
वैसे तो भारतीय कला बाजार को मॉनिटर करने का कोई ठोस तंत्र विकसित नहीं हो पाया है, फिर भी एक्सपट्र्स की मानें, तो यह लगभग एक हजार करोड़ से सोलह सौ करोड़ के बीच होगा। पिछले दस सालों में उसमें तेजी से इजाफा हुआ है। हमारी कला के कद्रदान और खरीदार बढ़ रहे हैं। पर कुल मिलाकर इसका बाजार बहुत असंतुलित है। यह अभी तक दो बड़े शहरों तक सिमटा हुआ है- दिल्ली और मुंबई। या फिर विदेशों में। इसके अलावा इसका कलेक्टर बेस भी बहुत छोटा है। लेकिन 500 से भी कम कलेक्टरों के साथ इस बाजार में अभी बहुत संभावनाएं हैं। यहां चीन का उल्लेख करना जरूरी है। चीन का कला बाजार भारत के मुकाबले 40 गुना बड़ा है। चीन की तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहुंच बनाने के लिए कई दूसरे तरीके तलाशने की जरूरत है।


कारोबारी गतिविधियां बढ़ी: अधिकतर कला विशेषज्ञ मानते हैं कि भारतीय कला बाजार का भविष्य बड़े शहरों पर निर्भर नहीं करता। अब वक्त आ गया है जब उसे अपने लिए नई टेरिटरी तलाशनी होगी। यह टेरिटरी उसे छोटे शहरों के रूप में मिल सकती है। सच तो यह है कि पिछले कुछ समय में देश के छोटे शहरों का बहुत तेजी से विकास हुआ है। जयपुर तक को अभी कला बाजार के छोटे शहरों में ही गिना जा रहा है। हालांकि यहां कारोबारी गतिविधियां बढ़ी हैं, जिससे समृद्धि आई है। जैसे-जैसे छोटे शहरों में पैसा आएगा, वैसे-वैसे वहां कला के कद्रदान बढ़ेंगे। राजस्थान में जयपुर, अजमेर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा और भीलवाड़ा के कलाकारों ने देश के आर्ट कलेक्टरों में स्थान बनाना शुरू किया है। जयपुर के कई आर्ट कलेक्टर बताते हैं कि उनके पास दिल्ली, हैदराबाद, सूरत, भोपाल, लखनऊ और गया जैसे शहरों से लोगों के फोन आते हैं। वे यहां के आर्ट और आर्टिस्टों के बारे में जानना चाहते हैं। वे यहां के कलेक्शंस को खरीदने में रुचि दिखाते हैं। उनके पास पैसा तो है लेकिन यहां के आर्ट और आर्टिस्टों तक पहुंच नहीं है। ऐसे लोगों को आर्ट पीसेज उपलब्ध हों, इसके लिए उन्हें राजस्थान में कुछ खास आर्टिस्टों के काम तक सिमटी कला दीर्घाओं से बेहतर किसी तटस्थ प्लेटफार्म की जरूरत है।
विदेशों में भी भारतीय कला के कद्रदानों की कोई कमी नहीं है। कला बाजार को उनकी भी बहुत जरूरत है। पिछले साल एक नीलामी के दौरान एक अमेरिकी ने हुसैन की पेंटिंग को 10 लाख डॉलर से भी अधिक कीमत में खरीदा था। हांगकांग में हुई नीलामी में भी चीनी और इंडोनेशियाई खरीदारों ने भारतीय कला में खासी दिलचस्पी दिखाई थी। यह भारतीय कला बाजार के लिए अच्छा संकेत है। वैसे भारतीय कला के चार स्तंभों की मांग अब भी सबसे ज्यादा है। जिस किसी के भी पास पैसा है वह हुसैन, रजा, सूजा या मेहता के कैनवास को अपने कलेक्शन में शामिल करना चाहता है। मंदी के दिनों में भी उनकी लोकप्रियता या कीमत में कोई कमी नहीं आई थी। इन चार स्तंभों के अलावा जामिनी रॉय, टैगोर, वीएस गायतोंडे, अकबर पदमसी और रामकुमार जैसे कलाकारों की भी मांग है। पिछले महीने लंदन के एक एनालिस्ट ने भारतीय कला बाजार की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें उसने कहा कि बाजार विशेषज्ञ आधुनिक भारतीय कला को लेकर बहुत पॉजिटिव हैं। इसके बावजूद कि अप्रैल 2011 से भारतीय कला बाजार के कॉन्फिडेंस इंडिकेटर में 28 परसेंट की गिरावट हुई थी। बहरहाल विदेश का बाजार तो अपनी जगह है ही, अपने देसी बाजार को भी और मजबूत करने की जरूरत है। अगर वे बाजार जम गए तो देश के उभरते कलाकारों को भी काफी लाभ होगा।
मशहूर भारतीय पेंटर सैय्यद हैदर रजा के पिछले साल भारत लौटने बाद भी उनके काम के दाम स्थिर हैं। रजा भारतीय कला की उस मशहूर चौकड़ी की आखिरी कड़ी हैं, जो कला के बाजार पर राज करती रही है। इनमें से तीन एम।एफ. हुसैन, सूजा और तैय्यब मेहता अब इस दुनिया में नहीं हैं। इसके बावजूद भारतीय कला बाजार में इस चौकड़ी की हिस्सेदारी आधी से ज्यादा है करीब 50 से 60 परसेंट तक। -राहुल सेन

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