सोमवार, 26 नवंबर 2012

एक था राजा... और एक 'बणी-ठणी'

हां... बहुत कुछ किसी राज के महाराज और उसकी रहस्यमयी प्रेम कहानी जैसी ही है 'बणी-ठणी' की अंत:कथा। बस, राधा और कृष्ण के विशुद्ध प्रेम के पवित्र संबंधों से लिपटी पवित्र कथा। अब यह सच्ची गाथा है या  फिर रजवाड़ों और रियासतों में पनपती रही केलि-क्रीड़ा और उन्मुक्त भोग की आम कहानी जैसी... जो भी हो... रियासतों के चारण भाटों ने अपने राजा और उसकी कलावंत रमणी दासी को महिमा मंडित कर अपना पुश्तैनी कर्तव्य पूरा किया। 
इधर हमने परिस्थिति जन्य साक्ष्यों के आधार पर 
'बणी-ठणी' के सभी पक्ष आपके समक्ष रखकर अपना 
पत्रकार धर्म निभाने का प्रयास किया।
 -राहुल सेन-
राजस्थान की अरावली पर्वत श्रंखला के बीच एक रियासत थी किशनगढ़। अठारहवीं शती के मध्य में अर्थात लगभग उत्तर मध्य काल में यह रियासत काफी सम्पन्न और बड़ी रियासतों में शुमार थी। राजा सावंत सिंह का राज था। (कालांतर में इन राजा का नाम नागरी दास भी हुआ, ऐसा क्यों हुआ यह आगे स्पष्ट होगा) सौंदर्य और कला की कद्र करने वाले राजा सावंत सिंह कृष्ण भक्त थे। अपने भगवान के चलाए रास्ते पर चलते सावंत सिंह ने अनेक कलाओं और कलाकारों को अपने राज में आश्रय दिया। वे स्वयं भी चित्रकला और कविता करते थे।
रियासत की रानियां भी निम्बार्क मत की अनुयायी थीं। इसमें कृष्ण की मोहन और राधा की मादन भाव से उपासना होती थी। ऐसे में बाल कन्हैया के किलोल, गौरस, गोपी, नौका विहार, चीर हरण वाले मन मोहन का गहरा प्रभाव था। होली-दीवाली तक सभी तीज त्यौहार इससे रचे-बसे रहते। दरअसल 'माया को भ्रम और जगत को मिथ्या' कहाने वाली बातों से अलग राज्य में 'माया को यथार्थ और जगत को सत्य' मानकर राधा-माधव के अनुराग और अनुग्रह को अपनाया गया। 
 वह सामान्य नहीं थी
ऐसे में कला और सौन्दर्य प्रिय राजा का अनुग्रह और अनुराग रानी बाकांवती के साथ-साथ उनकी एक दासी के प्रति भी खूब हुआ। जाहिर है राजा की नजरों में प्रशंसा पाने वाली यह दासी सामान्य नहीं थी। वह मूलत: गायिका थी। इसी के साथ कवयित्री व कलावंत भी थी। कृष्ण सरीखे राजा की अपनी ओर आसक्ति को जानने के बाद दासी ने स्वयं को मीरा की तरह समर्पित करते हुए कृष्ण की राधा से तारतम्य कर लिया। रियासत में और बाहर भी राजा और दासी के इस अनुग्रह और अनुराग का यह आलम रहा कि दासी को राजा ने कई संबोधन और सम्मान दिए तो राजा को प्रजा ने कई उपाधियों से नवाजा।
राजा सावंत सिंह को चितवन चितेरे व कवि के साथ सनेही, अनुरागी, मतवाले आराधक जैसे संबोधनों से कई जगह उल्लेखित किया गया है। राजा को कृष्ण मानकर राधा से तारतम्य स्थापित कर चुकी दासी स्वयं को  नटवर नागर की मानने लगी तो राजा को एक संबोधन मिला नागरी दास।
उसे कई नाम मिले 
उधर दासी के जीवन में दो ही आराध्य रहे एक सवेश्वर कृष्ण और दूसरे महाराज सावंत सिंह। दासी स्वयं 'रसिक बिहारी' के नाम से कविता करती इसलिए एक नाम यह भी मिला। कलावंती और कीर्तनिन वह पहले से थी। कालांतर में लवलीज, नागर रमणी व उत्सव प्रिया नाम भी मिले।
अनुग्रह के महाभाव और अनुराग को 'पुष्टि मार्ग' मानते हुए बात लाड़-लाड़ली के प्रेम की हो या होली के अतिरेक आनंद की। दीपावली के सौन्दर्य उल्लास की हो या जलाशय के शंात जल में नौका विहार की। कुल मिलाकर उस काल खंड में राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ा सहित युगल क्रीड़ा का उन्मत्त भोग और आराधना का
बोलबाला रहा।

Bani-Thani ऐसे बनी 'बणी-ठणी'

राजा के दरबार में अन्य गुणी कलाकारों में एक चित्रकार भी थे। नाम था निहाल चंद। वे विभिन्न अवसरों पर  किसी न किसी रूप में राजा के साथ इस दासी को चित्रित करते रहते थे। कहते हैं एक बार राजा ने दासी को रानियों जैसे वस्त्र और अलंकरण धारण करा के सजाया और स्वयं एकांत में उसका एक चित्र बनाया। राजा ने इसे नाम दिया 'बणी-ठणी'। वह चित्र कैसा बना, यह कभी किसी को पता नहीं चला।  जब राजा ने अपनी यह कृति दरबार के चित्रकार निहाल चंद को दिखाई तो राज चित्रकार ने उसमें कुछ संशोधन बताए। बाद में राजा ने वह चित्र अपने चित्रकार से भी बनवाया और वही चित्र सार्वजनिक किया गया।
आज हम जो 'बणी-ठणी' देखते हैं वह किशनगढ़ के राज चित्रकार निहाल चंद की ही कृति है, जो महाराज ने अपने समक्ष बनवाई और उसमें कई सुधार कराए और स्वयं भी किए। राजा सावंत सिंह की तरह चितेरे निहाल चंद को भी अपने चित्रों का विषय बनाने के लिए राजा की प्रिय दासी सर्वोतम व आदर्श माडल लगती थी। निहाल चंद की 'बणी-ठणी' बहुत लोकप्रिय हुई, लेकिन राजा सावंत सिंह की मूल 'बणी-ठणी' कृति को फिर कोई नहीं देख पाया।
कहते हैं राजा ने अपने अंतिम समय तक उस कृति को अपने साथ रखा और अंत से पूर्व उसे नष्ट कर दिया। आज हम राजस्थानी सौन्दर्य और शैली का प्रतीक बनी 'बणी-ठणी' का जो छविचित्र देखते हैं, वह सोलह आने यर्थाथ है। यह अभिज्ञान सही व सत्य है। राजा के जीवन की तरह निम्बार्क के द्वैताद्वैत और बल्लभ के पुष्ट अद्वैत का संगम 'बणी-ठणीÓ में भी हो गया। इस छविचित्र के बाद दासी का यही नाम सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। जीवन की संध्या बेला में 'बणी-ठणी' राजा के साथ वृंदावन में जाकर रहने लगी और वहीं उन दोनों का देहांत हुआ।

Bani-Thani आखिर किसने बनाई थी बनी-ठनी

श्रीराधा रूप में चित्रित 'बणी-ठणी' के हाथ में कमल देकर लक्ष्मी की तरह बताया है वहीं नारी के कमला और पद्मिनी रूप को भी दर्शाया है। श्रीराधा के रूप में इसे आद्याशक्ति भी माना है।  पाठ्यक्रम की पुस्तकों को आधार माने तो जहां चित्रकारी के तहत 'बणी-ठणी' की मदकारी और खुलाई को शास्त्र विधान का 'अतिक्रमणÓ माना जा सकता है वहीं नारी रूपों के निरूपण के शिल्प में इसे 'लांछन' कहा जा सकता है। लेकिन विशुद्ध शैली और शास्त्र विधान से परे यह 'बणी-ठणी' अपने किसी भी आम दर्शक को किसी चुंबक की तरह न केवल खींचती है बल्कि देर तक बांधे रखने में सफल होती है। कलाप्रेमी राजा या चित्रकार की तो बात ही अलग है।
मय-समय उत्पन्न परिस्थितियों से जो साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि 'बणी-ठणी' का प्रोट्रेट संभवत: चित्रकार निहाल चंद और राजा सावंत सिंह की साझा कृति है। महाराज सावंत सिंह की मूल कृति से लेकर राज चित्रकार निहाल चंद की अंतिम 'बणी-ठणी' तैयार होने का यह सिलसिला संवत 1755 से 1757 तक चला। इस बीच अन्य चित्र भी बनते रहे। मारवाड़ शैली की उन्नत कलम का यह स्वर्णकाल कहा जा सकता है।
नागर रमणी बणी-ठणी जी के इस विलक्षण पोटे्रट का विवेचन करते हुए यहां हम देखेगे कि इसमें आरूढ़ साक्षात सौन्दर्य गर्विता इस यौवना के यह भाव किस स्तर पर महसूस किए गए? 'बणी-ठणी' ऐसी विलक्षण क्यों और कैसे हुई? इसके सौन्दर्यपरक और शैली मार्गिय शास्त्रीय कारण क्या रहे होगें?
1. मुनि वात्स्यायन ने चित्रशिल्प के षडंगों में संतुलित समायोजन किया था। बाद में उसे चित्रकार अवनीद्रनाथ ठाकुर और पृथ्वी कुमार अग्रवाल ने अपनी पुस्तकों में और सरल किया। अब चित्रकला के विद्यार्थियों को यहां रूप भेद, प्रमाण, भाव, सादृश्य, लावण्य योजना और वर्णिका भंग के संबंध में विवरण बताने का कोई औचित्य नहीं है। यह सब पाठ्यक्रम में उपलब्ध हैं। 'बणी-ठणी' में वह समाहित हैं दूसरी ओर ग्यारहवीं सदी में भोज ने चित्रकर्म या विन्यास के अष्ठांग बताए हैं। यहां चार अंगो को महत्ता दी गई है, शेष की चर्चा पनुरावृति ही होगी।
मध्यकाल में मुगल बादशाह अकबर के जमाने में राजस्थानी और ईरानी हिरात कलम का मेल कराके बाग-बगीचों और व्यक्तिचित्रों को प्रमुखता दी गई। उस काल के प्र्रोट्रेट्स का भी 'बणी-ठणी' पर असर नजर आया। 'बणी-ठणी'  के चित्रकार स्वयं कश्मीरी थे। वहां ऐसे आवक्ष छविचित्रों को शबीह कहा जाता था। ऐसे में 'बणी-ठणी' पर इन शैलियों का पूरा प्रभाव पड़ा और एकचश्म टिपाई, के साथ गदकारी और खुलाई की खुली छाया 'बणी-ठणी' पर छाई रही। इसमें जहां मुगलकालीन बेगमों सा सुबुकपन और नाजुकपन है वहीं झीना ओढऩा कश्मीरी कहानी कहता है। किशनगढ़ के राजमहलों की पृष्ठभूमि में उद्यानों और जलाशयों में नौका विहार के अनेक चित्र हैं, होली, दीवाली और विभिन्न केलि क्रिड़ाओं के अनेकों चित्र हैं जिनमें राजा सावंत सिंह और उनकी प्रिय माडल चित्रित हैं। बहुदा यह प्रस्तुति राधा-माधव के नाम से है, लेकिन यहां हम अपनी 'बणी-ठणी' से ही सरोकार रखेगें।

Bani Thani बनी-ठंनी की देहभाषा

देहभाषा और पांच प्रमुख आकर्षण
मेरी नजर में 'बणी-ठणी' के रूप सौन्दर्य के कम से पांच बिंदु ऐसे हैं जो किसी शुष्क मन को भी एक हद तक भिगों देने की क्षमता रखते हैं। यह पांच बिंदु हैं, 'बणी-ठणी' की आंख, नाक, अधर, ठोढी और घने लहराते केश। कुल मिलाकर यही उसकी देहभाषा भी है। काजल युक्त उसके नयन, जूही की कली सी सुति हुई नाक, चकोर की चोंच से कुछ बाहर की ओर उभरे दहकते अधखुले अधर व नुकीली चिबुक। कोमल काया को कसती चोली और लपेटती ओढऩी और दमकते अलंकारों से किसी भव्य महल या मंदिर का सा आभास होता है। हालांकि पूरी चित्र रचना हल्के सफेद, गुलाबी और सलेटी रंगों से आच्छादित है, लेकिन उसी में देहभाषा के संकेत भी हैं।
ऐसे देखें 
देखिए जब रेखाएं कली की तरह मुंदती लगे तो वह तन्वंगी है। जब रेखाएं फैलती लगे तो वही मोटी अर्थात कामिनी और हस्तिनी है। जहां वह लहराती लगे वहां वह छरहरी है और घूमती सी लगे तो सुडोल देह पुष्ट होती है। इनमेंं डूबने के बाद जब हम इससे उबरते हैं तो यही उद्धाटित होता है कि 'बणी-ठणीÓ की देह के अनुपात अर्थात रेश्यो और समानुपात अर्थात प्रोपोर्शन का साइनाएस्थीसिस भी है। एक ही बॉडी यहां साइज और शेप को निर्धारित कर रही है। अत: यहां समान अनुपात में एक से ज्यादा आकारों और आकृतियों को एक से बिजनेस में इनवाल्व पाते हैं। यह प्रक्रिया एक पैरामीटर और एक जैसी थीम में और ज्यादा सटीक लगती हैं। अगर आप गौर करें तो भुजाएं ही अनुपात को समतुल्य कर रही हैं। इन आयामों के बीच हम देह की मुद्राओं और भंगिमाओं को एक भाव में मिला पाते हैं। मुद्राएं अर्थात पोस्चर्श हड्डियों की संरचना और मांसपेशियों से तय होती है। यही तो आकृति बनाती हैं। अनुसंग में भंगिमाएं याने जेश्चर्स व्यंजक ध्वनियों जैसी हैं। ये वक्रोक्ति जैसी हैं।
यहां मामला कुछ जटिल हो रहा है। इसे आसान बनाने के लिए चित्रकार र.कु. मेघ द्वारा इस संदर्भ में बनाए कुछ रेखाचित्रों को देखते हैं यह उन्होंने खासकर अलग-अलग शैलियों में मुखाकृतियों की भंगिमाएं और डिकांस्ट्रकशंन में खुलती भंगिमाएं और उनका अन्य अंगों से समानुपात अर्थात प्रोपोशंस स्पष्ट करने के लिए चित्रित किए हैं।
हम समानुपातिक ढंग से किशनगढ़ कलम की जयपुर कलम, मांडू-मालवा कलम तथा उदयपुर कलम से तुलना करके उनके रहस्यों को खुलते-उघड़ते देख सकते हैं। यहां एकचश्म मुख वाली एक ही मुद्रा की माप-जोख की गई है। जबकि इसी से मुद्रा के बजाय भंगिमा की बारीकी, विविधता, नवीनता, शैली और टेक्नीक का खुलासा हो रहा है। इनमेेें कपोल और चिबुक की हड्डियों तथा नेत्रों के अस्थिकोटर भंगिमाओं की बारीक विलक्षणता को हाइ-लाइट किया गया है। (देखें रेखा चित्र-1)
रेखा चित्र-1
चित्रकार मेघ की बात सही माने तो किरण के अंतराल से ही सौन्दर्य लुक-छिप कर आता-जाता लगता है। वही रूपराशि और लावण्य ढुलकाता है। एक बहुत छोटा बिंदु या कण या इनसे मिल कर बनी रेखा किसी चित्र की अस्मिता और अभिज्ञान को चिन्हित कर देती है। इसमे देह के भावात्मक रसायन अपनी भूमिका अदा करते हैं। ऐसे में भंगिमा के बेहद महीन जाल बुन जाते हैं। (देखें रेखा चित्र-2)
रेखाचित्र 2 लघु विनिर्मितियों (डिकांस्ट्रकशंन) में खुलती भंगिमाएं  (सभी अंग समानुपात (प्रोपोशंस) में)
अब रेख चित्र 1 व 2 का मिलान करने पर हम समानपात के चक्रव्यूह में प्रवेश करने लगते हैं। इसके बाद भंगिमाएं तथा भावों, व्यक्तित्व तथा प्रवृतियों के मनोरथ, द्वंद्व तथा दुविधा, अंातरिक तथा बाह्य, गुप्त तथा प्रकट आदि की आंख-मिचौनी, भूल-भुलैया तथा अवचेतरन-उद्धाटन को भी जान और समझ लेते हैं। कालातंर में इन भंगिमाओं के अंतराल को जानने पर हम एक दिन अपनी-अपनी अरिर्वचनीय भाषाएं खोज सकते हैं, यही भाषा आगे जाकर हमें कला जगत में औरों से अलग पहचान देती है। लग रहा है यहां विषय परिवर्तन हो गया है, चलिए इस खुले विचरण के बाद फिर से 'बणी-ठणी' की लाइन पर आते हैं।
परचित्र प्रवेश
तो राजस्थान की इस महान कृति को देखने और समझने के लिए शंकराचार्य के 'परकाया प्रवेश' की थ्योरी की तरह हम 'बणी-ठणी' में 'परचित्र प्रवेश' करने की कोशिश करते हैं। ऐसे में हम कुछ सार्थक अनुमान लगाने में सफल हो सकते हैं।
अस्थि संरचना यानी एनॉटमी के आधार पर 'बणी-ठणी' की आंखों के नीचे की हड्डी थोड़ी ऊध्र्य हैं, इससे नाक तथा चिबुक नुकीली हो गई है। ऊपरी जबड़े की संधि में वह अधोमुखी है। जिससे ऊपरी अधर टुक कुछ आगे बढ़ आया है। चित्रकार ने केश राशि को जूड़े में बांधने के बजाय लहराती नागिन सा कुंडलित बनाया है। यह माथे के ऊपर सिर के अर्धविकसित फण से लेकर कपोलों में अधर तक लट बन कर आई है फिर दाएं कंधे पर फैलकर तरंगित और स्पंदित हो रही है। मानो यहां राजा और चित्रकार ने इच्छाधारी नागिन के माइथीम का वैज्ञानिक संकेत दिया हो। परचित्र में' कुछ और भीतर प्रवेश करें तो यह पाते हैं कि नागिन रात को ही पूर्ण यौवना, ललिता और कामिनी होकर शय्याकेलि करती है और ब्रह्मकाल में फिर पूर्वत कुंडलिनी हो जाती है।
इसकी पुष्टि हम इस तथ्य से कर सकते हैं कि किशनगढ़ रियासत के पुष्टिमार्गिय कृष्ण मंदिर में रात के शयन की आठवीं 'सेवकाई' अर्थात रात को अंतिम शय्या-शयन का प्रावधान नहीं था। क्योंकि तब अकेली राधा ही कृष्ण शय्या में केलिमग्न होती थीं। किशनगढ़ में तब केवल बणी-ठणी जी ही उस याम में मंदिर मेंं जा सकती  थीं। एक और पारिस्थिक प्रमाण यह है कि बणी-ठणी जी राजा को कृष्ण तुल्य आराध्य और स्वयं को अष्टछाप मंडल में राधा तुल्य भक्तिन मान बैठी थी। इसी के साथ यह भी कि वे 'रसिक बिहारी' के नाम से कविता और कीर्तन गायन भी करती थीं। 'बणी-ठणी' की हस्ती, मस्ती और परस्ती के ये गूढ़ मनोरहस्य भी एक-एक कर खुलते चले जाते हैं।
(चित्रकार श्री रमेश कुतल मेघ सहित गगानाचंल से साभार)

Bani Thani बणी-ठणी का एक समग्र दर्शन

'बणी-ठणी' के वस्त्राभूषण ठेठ सामंती राजस्थानी हैं। ललाट के ऊपर मांग के आरंभ में गोल स्वर्णिम शिरफूल , उससे निकली मोती लडिय़ां, मोती लडिय़ों को जोड़ता बड़ा सा घंटी नुमा झुमका, खनखनाते मोटे चौड़े से कंगन, कलाई से कुहनी तक चढ़ती सिंदूरी चूडिय़ां, गले के नीचे वक्ष क ऊध्र्व को झुलाता कई लडिय़ों वाला कंठहार, एक बड़ी सी गोल नथनी जिस पर जवाहरात गुंथे हैं।
इसी तरह पहनावे में लाल रंग की चोली, गले से लिपटी सफेद चूनर और उसके ऊपर सलमे-सितारे से टंकी तथा कारों की पत्तों पर गोटो से सधी पिछौरी या पिछवाई नजर आ रही है। 'बणी-ठणी' के अंग-प्रत्यंग गोरे गेहूं के रंग से हैं। हथेली केसर या मेहंदी से अनुरंजित है। आंखों में गहरा काला काजल है। उतनी ही काली लटें है जो कान के नीचे कंधों तक पसरी हैं। घनी भौवें तने धनुष सी और पलकें बड़े कमल की पंखुरी सी है। एकचश्म शैली में चित्रित आंख किसी चंचल मछली सी है। होंठ किसी मीन मुख से रसाकुल और रक्तवर्ण हैं।
'बणी-ठणी' ने अंगूठे और प्रथमा अंगुली की चुटकी से सलमेंदार बंधनी की झीनी पिछौरी थाम रखी है। एक ओर वह जहां घंूघट के पट खोल रही है वहीं पीछे के परिदृश्य से अपने सौन्दर्य को छिपा भी रही है। लिबास की कई तहों में ढका सुनहरी गोट का मुद्रा श्रीचक्र भी मानों सब कुछ कह है। मानों यही वह आद्या शक्तिमयी राधा और त्रिपुरसुंदरी है। कम से कम राजा सावंत सिंह तो यही मानते थे।  यही तो निरूपण का व्यूह है। तभी तो नागरी राधा के दास हो कर रह गए...नागरी दास।
ऐसा लगता है कि 'बणी-ठणी' की स्थली फूलमहल में कहीं है। उसकी वेशभूषा राजसी है। वह आभूषण और रत्नों से सज्जित है। उसकी सघन केशराशि खुली है। पलकों पर तो हैं, लेकिन उसके नीचे नेत्रों में बरौनियां नहीं है। बड़ी-बड़ी घुंघराली जुल्फें और झूलती नथनी, हाथों की अंजनी सी मुद्रा आदि सब मिलकर वातावरण में एक लय सी गुंजित करते हैं।

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

'चित्रगीतिका' में बणी-ठणी

राजस्थान के प्रसिद्ध चित्रकार रामगोपाल विजयवर्गीय ने शब्दचित्रों के अपने संग्रह 'चित्रगीतिका' में बणी-ठणी  का जो दिग्दर्शन किया वह यहां प्रस्तुत है।
लहराता मुख पर
शोभा समुद्र
अंगो पर छिटकी
चारू चांदनी रातें हैं
प्रति अवयव पर 

अंगड़ाई रत लावण्य ललित 
महाभाव से  परिचित
बणी-ठणी दर्शन
जिनके खंजन नयन विनत
आलस वश बिखरे
कंच कलाप युग भृकुटि चाप
खंजन पक्षी सम चक्षु
चारु चंद्रिका बिखराती
वदन चंद्र पर
पलक रसीली
चितवन चकित
धरे नासा मुक्ताफल से
सुधा बिंदु सम
अधर पीक की लीक रचे
शोभा शिरीस सम्पुट का
अग्र अधर के मुक्ता
ओस बिंदु सम अवलम्बित
ग्रीवा जैसे
कल्प वृक्ष की शाखा सुन्दर
उठी हुई जो चंद्र वदन तक
हार हीरकों के
दोलित उन्नत उरोज युग पा
जैसे दो सरिता बहती हों
हिमगिरी के ऊपर से
अलकावलि छुटी 

कपोलों पर
जैसे कि धूम्रलेखा
छल्ले बन बन कर
चली जा रही
लट केशों की करती क्रीड़ा
बल खाए बाहु मूल पर
दो भुजंग
कानों में शोभायमान
कुंडल कंधों तक आलंबित
कटिभाग नितंबों की गुरुता 

काले संबल कदली दंडों से
उरु युग पर आश्रित जैसे
दो कमल कोस के चरण
राजमहल बन गया
किशनगढ़ का वृंदावन
फूल महल के 

स्वच्छ सरोवर
की लहरों ने गाए
गीत प्रेम के अविरल।

बुधवार, 7 नवंबर 2012

कोच्ची में भव्य बनाले

कोच्ची में भव्य बनाले 
मूमल नेटवर्क, कोच्ची। कोच्ची मुजिरिस बेनाले 2012 का आयोजन ऑथ्स्पनवाल हाउस में किया जा रहा है। लगभग 1,60,000 स्क्वायर फीट की इस जगह पर होने वाले इस भव्य आयोजन में देश-विदेश के कई नामी-गिरामी कलाकार शामिल होंगे। इसमें भारत के विभिन्न प्रदेशों के कलाकार तो होंगे ही, आस्ट्रेलिया, अफगानिस्तान ,यूएई, साउथकोरिया, अर्जेनटीना, नीदरलेन्ड और यूके के कलाकार भी शामिल होंगे। कला प्रेमी आयोजन का 12 दिसम्बर 2012 से 13 मार्च 2013 तक लुत्फ उठा पाएंगे।
 महावीर के चित्रों का दिल्ली में प्रदर्शन
मूमल नेटवर्क, नई दिल्ली। राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित और अपने विशिष्ट लघु चित्रण के लिए पहचाने जाने वाले बीकानेर के चित्रकार महावीर स्वामी की पेंटिंग्स का प्रदर्शन यहां द गैलेरी ऑन एमजी में किया गया। आरूषि आर्ट द्वारा इस प्रदर्शनी को अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में आयोजित किया गया था।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

अकादमी का राज्य स्तरीय शिविर पुष्कर में

मूमल नेटवर्क, जयपुर। अजमेर में समीप तीर्थस्थल पुष्कर में नवम्बर के प्रथम सप्ताह में राज्य स्तरीय चित्रकला शिविर आयोजित किया जा रहा है। राजस्थान ललित कला अकादमी द्वारा पांच से नौ नवम्बर तक  आयोजित इस शिविर के लिए राज्यभर से 15 कलाकारों का चयन हुआ है। इनमें उदयपुर से सात, अजमेर व बूंदी  से दो-दो व भीलवाड़ा, जोधपुर व कोटा से एक-एक कलाकार हैं।
पुष्कर में अभी से हो रही कार्तिक मेले की चहल-पहल के बीच वहां आरटीडीसी के पर्यटक गांव में लगने वाले इस शिविर में कलाकारों को स्थानीय दर्शकों के साथ देश-विदेश के पर्यटकों के समक्ष बेहतर रेस्पांस मिलने के अत्यधिक अवसर होते हैं। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार इस पांच दिवसीय शिविर में शामिल होने वाले प्रत्येक कलाकार एक-एक कलाकृति बनाएंगे। इसके लिए कलाकार को 10 हजार रुपए मानदेय व अन्य  व्यय अकादमी की ओर से प्रदत्त होंगे।
राजस्थान ललित कला अकादमी की ओर से मिली जानकारी के अनुसार शिविर के लिए चयनित चित्रकारों में  उदयपुर से हेमंत द्विवेदी, नरेन्द्र सिंह चिंटू, प्रो. मदन सिंह राठौड़, आकाश चोयल, युगल किशोर शर्मा, किरण मोरदिया व मीना बया, अजमेर से लक्ष्यपाल सिंह राठौड़ व अमित राजवंशी, बूंदी से मीनाक्षी भारती व लोकेश जैन, भीलवाड़ा से कैलाश पलिया, कोटा से सुरेश जोशी व जोधपुर से हरीश वर्मा शामिल हैं। पुष्कर के कलाकार अमित वाजपेयी को इस शिविर का स्थानीय समन्वयक बनाया गया है।
नेशनल आर्ट कैंप भी पुष्कर में  होगा 
मूमल नेटवर्क, जयपुर। ललित कला अकादमी दिल्ली की ओर से आयोजित होने वाला राष्ट्रीय स्तर का शिविर भी इस बार पुष्कर में ही आयोजित होगा। यहां मिली जानकारी के अनुसार इस शिविर में भी लगभग 15 कलाकार शामिल किए जाएंगे, जो देश के विभिन्न प्रांतो से चुने जा रहे हैं।

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

दर्शक संस्था की दर्शना में दस्तक

शुरुआती दौर में ही लडख़ड़ाए कदम
मूमल नेटवर्क, जयपुर। संगीत और नृत्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठित दर्शक संस्था द्वारा पेंटिंग्स और स्कल्पचर के क्षेत्र में बढ़ाए गए कदम अपने शुरूआती दौर में ही लडख़ड़ा गए हैं। प्रारंभिक जानकारी के अनुसार ऐसा फैकल्टीज के बीच उभरे मतभेदों के चलते हुआ।
दर्शक संस्था की ओर से पिछले मई के महीने में मालवीय नगर स्थित उनके नए भवन में पेंटिंग और स्कल्पचर के लिए डिप्लोमा व डिग्री कोर्स शुरू किए गए थे। इसके लिए दर्शक संस्था के साथ एक नया नाम भी सामने आया था जो श्रेष्ठ स्कूल ऑफ पेंटिंग एंड स्कल्चर का था। श्रेष्ठ स्कूल बीकानेर मूल की कलाकार सविता शर्मा द्वारा संचालित है, जिन्हें कला पक्ष का विभागाध्यक्ष बनाया गया। इसका एसोसिएशन दर्शक कॉलेज ऑफ म्यूजिक एंड आर्ट के साथ बताया गया। इसी के साथ जयपुर के जाने-माने मूर्तिकार हंसराज कुमावत को भी इस आयोजन में साथ लिया गया। इस संस्थान में ड्राइंग और पेंटिंग की बेसिक के साथ क्रिएटिव आर्ट, बेसिक कामर्शियल आर्ट, मीडियम एंड टेकनिक्स, ग्राफिक्स, क्राफ्ट, फोटोग्राफी, आर्ट थू्रआउट कम्प्यूटर और थ्योरी के साथ म्यूरल और स्कल्पचर के शिक्षण की बात प्रचारित की गई।
पिछले पांच महीनों में इस संस्थान से करीब 15 विद्यार्थी कला शिक्षा के लिए जुड़े। दूसरी ओर इस दौरान विभिन्न मसलों को लेकर सविता शर्मा और हंसराज कुमावत में मतभेद होने लगे। बात यहां तक बढ़ी कि कुमावत को अपने शिष्यों के साथ दर्शक संस्था के बापू नगर स्थित भवन में आकर शिक्षण कार्य करना पड़ा। ऐसे में मालवीय नगर स्थित भवन सूना होने लगा। उधर श्रेष्ठ स्कूल की सविता शर्मा ने अपने अन्य साथियों के साथ शेष बची गतिविधियों का संचालन जारी रखा है। मूमल द्वारा जानकारी चाहने पर उन्होंने बताया कि कुछ अपरिहार्य कारणों से एक फैक्ल्टी हंसराज कुमावत को उन्हें निकालना पड़ा। श्रेष्ठ स्कूल अपने समझौते के तहत दर्शक कॉलेज से जुड़ा है और अपना काम कर रहा है।
दर्शक संस्था के निदेशक राजीव भट्ट ने बताया कि श्रेष्ठ स्कूल भी हमारी ही संस्था है, हमने इसे इंट्रोड्यूस किया है और अपने चित्रकला क्षेत्र को विकसित करने का कार्य सांैपा है। यह पूछे जाने पर कि श्रेष्ठ स्कूल तो सविता शर्मा का संस्थान है और उन्होंने दर्शक संस्था के साथ मिलकर इसे चलाने के लिए भारी धन खर्च किया है। भट्ट ने बताया कि ऐसा कुछ नहीं है, कोई अपने बैठने के लिए कुछ फर्नीचर या अन्य संसाधन जुटाता है तो उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है।
अब आर्ट गैलेरी भी
कला शिक्षण की क्षेत्र में कदम बढ़ाने के बाद अब दर्शक संस्था ने अपने नए भवन में एक कला दीर्घा विकसित करने की योजना भी बनाई है। यह आयोजन भी श्रेष्ठ स्कूल के साथ ही अंजाम दिया जा रहा है। इसके लिए सविता शर्मा और उनकी टीम तो है ही साथ ही बहादुर हेमराणा को भी शामिल किया गया है। यह वहीं बहादुर हैं जो नगर की सबसे प्रतिष्ठित आर्ट गैलेरी समन्वय में काम करते थे और पिछले दिनों वहां से अलग किए गए।